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नेपाल : सत्ता, संयम, न्याय और लोकतांत्रिक व्यवस्था का इम्तेहान

नेपाल : सत्ता, संयम, न्याय और लोकतांत्रिक व्यवस्था का इम्तेहान

काठमांडू/रक्सौल, 06 अप्रैल (वार्ता) नेपाल की राजधानी काठमांडू में 28 मार्च केवल विरोध प्रदर्शन का दिन नहीं था, यह नेपाली सत्ता के संयम, न्याय और लोकतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस की भूमिका के इम्तेहान का भी दिन था।

आंदोलनकारियों की अराजकता मानी जाय या फिर शासन का अपने ही लोगों पर जरूरत से अधिक बल के प्रयोग की सबसे बड़ी कीमत नेपाल के नागरिकों को चुकानी पड़ी है। काठमांडू के टिंकुने चौराहे पर राजभक्तों के प्रदर्शन के रूप में शुरू हुआ आंदोलन जल्द ही अनियंत्रित हो गया। पुलिस की कठोर जवाबी कार्रवाई से यह और अराजकता में बदल गया। दो लोगों की मौत हो गई और 120 से अधिक लोग घायल हो गए। लेकिन, आंकड़ों के पीछे असली और कई मानवीय कहानियां छुपी हैं, जिसमें सपनों के टूटने की, युवा जीवन में उथल-पुथल मचने की और आम लोगों की दिनचर्या से जुड़ी पीड़ा पसरी है।

राजशाहीवादियों के विरोध प्रदर्शन के दैरान अराजकता फैली, निजी संपत्ति को आग लगा दी गयी और दुकानों को लूट लिया लिया गया। पुलिस ने जवाबी कार्रवाई में गोलियां चलायी। इस हिंसा से न केवल राजनीति में गहरी हुई दरारें उजागर हुईं बल्कि कानून के प्रति जनता के भरोसे में भी आयी खाई भी दिखायी पड़ी। जैसे-जैसे घटना के बारे में अधिक तथ्य, सच्चाई और जानकारी सामने आ रही है नेपाल का प्रबुद्ध वर्ग निष्पक्ष जांच की जरूरत महसूस कर रहा है।

इसके बावजूद जवाबदेही के निर्धारण और उच्चस्तरीय जांच की जरूरत से सरकार के इनकार से न केवल अनिश्चितता और बढ़ गई है बल्कि सरकार की पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता पर लोगों को संदेह पैदा हो रहा है। लोगों को उम्मीद थी कि इसकी न्यायिक जांच होगी, लेकिन सरकार इसकी जरूरत नहीं समझती। फिर लोगों ने सोंचा, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जांच करेगा लेकिन उसने भी वैधानिक संकटों के कारण लोगों की उम्मीदों से किनारा कर लिया।

नेपाल में पुलिस की संवेदनशीलता और बल प्रयोग पर सवाल उठने लगे हैं। पुलिस उप महानिरीक्षक (डीआईजी) दिनेश आचार्य के मुताबिक न्यूनतम बल का इस्तेमाल किया गया था। पुलिस ने सार्वजनिक रूप से 58 राउंड गोली चलाने और 764 आंसू गैस के गोले छोड़ने की बात स्वीकार की है। 39 पन्नों की एक आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक, 92 राउंड फायर किए गए थे। आधिकारिक आंकड़े से यह लगभग दोगुना है। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 94 प्रतिशत गोलियां एसएलआर और इंसास राइफलों जैसे अर्ध-स्वचालित हथियारों से दागी गईं, जिनका इस्तेमाल आमतौर पर केवल युद्ध जैसे चरम हिंसक हालातों में किया जाता है।

आधिकारिक आंकड़ा अश्रु गैस के 764 गोले का था, आंतरिक रिकॉर्ड बताते हैं कि अकेले काठमांडू पुलिस ने 864 गोले दागे और सशस्त्र पुलिस बल ने 104, जिनकी कुल संख्या लगभग 1000 थी। बुद्धिजीवियों के लिए ऐसी संख्या संयम नहीं बल्कि अत्यधिक बल प्रयोग करने की एक सुनियोजित योजना का संकेत देती है। एक धारणा है कि दंगा नियंत्रण की तैनाती में आम तौर पर ढाल, डंडे, आंसू गैस, रबड़ की गोलियां और पानी के तेज फव्वारे जैसे गैर-घातक उपकरण भीड़ को तितर-बितर करने के लिए तैनात किए जाते हैं जबकि ठीक इसके विपरीत अर्ध स्वचालित घातक हथियार तैनात किए गए, जो "न्यूनतम बल" प्रयोग की नीयत पर सवाल खड़ा करते हैं।

कानूनी तौर पर घातक बल का उपयोग केवल उन्हीं स्थितियों में किया जा सकता है जब जीवन को तत्काल खतरा हो। कानूनी प्रावधानों और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता का अनुपालन प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा अनिवार्य रूप से किया जाता है। फिर भी गैर विवादित क्षेत्रों में अर्ध-स्वचालित हथियार तैनात किए गए और उनसे गोलियां बरसायी गयीं। ऐसे ही एक गैर विवादित क्षेत्र में घर जाते समय रेविका खत्री और उसके चचेरे भाई दिनेश खत्री को कथित तौर पर गोली मार दी गई।

पुलिस के दावों और घायलों के बयान परस्पर इतने विरोधाभाषी हैं कि बगैर किसी उच्चस्तरीय जांच के किसी भी दावे को सत्य मान लेना कठिन है। पुलिस की गोली से छात्र, राहगीर और यहां तक ​​कि विरोध से असंबंधित लोग भी घायल हुए हैं। जैसे कि उदयपुर निवासी 22 वर्षीय रेविका खत्री को गोली लगी है। वह बीबीए तीसरे सेमेस्टर की छात्रा और नरेफेंट में एक खाद्य भंडार में अंशकालिक कर्मचारी हैं। कार्य पर जाने के दौरान आंदोलन के करण सड़क जाम थी। रेविका ने कोटेश्वर में रहने वाले अपने 24 वर्षीय चचेरे भाई दिनेश कुमार खत्री को बुलाया। इस दौरान रेविका की दाहिनी जांघ में गोली लगी जबकि दिनेश की बाईं जांघ में। गोली उनके दोनों पैरों को चीरती हुई पास के शटर में जा घुसी। रेविका पुल पर गिर पड़ी और दोनों भाई-बहन के रक्त से सुर्ख हो गयी सड़क। चिकित्सकों ने कहा है कि गोली रेविका की दाहिनी जांघ की दो नसों को काटती हुई निकली है।

इसी तरह 30 वर्षीय शंभू दर्जी सऊदी अरब में पांच वर्ष नौकरी कर कैंसर से पीड़ित अपनी मां की देखभाल के लिए घर आये थे। मां से मिलकर वे वापस कतर जाने की अपनी उड़ान की तैयारियां कर रहे थे। इसी क्रम में वे गौरीघाट होकर अपनी बहन से मिलने जा रहे थे लेकिन अब वे अस्पताल के बिस्तर पर हैं। उन्होंने मीडिया को बताया, “मुझे तब तक पता नहीं चला कि मुझे गोली लगी है जब तक मैंने खून नहीं देखा। मैंने कतर के लिए सब कुछ खर्च कर दिया। अब क्या, मैं सोच भी नहीं सकता।” कुछ ऐसी ही कहानी है 40 वर्षीय इंद्रमाया लिम्बू की है, जो अपनी पीठ का इलाज करा कर बालकुमारी से लौट रही थीं। उन्हें अपने पैर में तेज चुभन महसूस हुई और वे गिर पड़ीं। उनकी जांघ से गोली लगने से खून बह रहा था। वे कहती हैं, “हमें नहीं पता कि न्याय के लिए किससे गुहार लगानी चाहिए।”

इसी तरह 27 वर्षीय दिल्लि प्रसाद लुइंटेल काठमांडू में बस टिकट काउंटर के कार्य से छुट्टी के दौरान विरोध प्रदर्शन देख रहे थे। प्रदर्शन उग्र हुआ और पुलिस ने गोलियां चला दी। एक गोली दिल्लि प्रसाद के पेट को चीरती हुई निकल गई। ट्रॉमा सेंटर में गंभीर आंतरिक रक्तस्राव और क्षतिग्रस्त आंतों के इलाज के लिए उनकी आपातकालीन सर्जरी की गई है। उनकी देख-भाल कर रहे दोस्त लेखनाथ घिमिरे ने कहा, “उन्होंने विरोध भी नहीं किया। वह बस भीड़ को देखने गए थे। अब हमें नहीं पता कि उनके अस्पताल का बिल कौन भरेगा।”

इस वर्ष 28 मार्च को कीर्तिपुर चार के निवासी 29 वर्षीय सबिन महारजन, वेलकम सूमो सर्विस, बल्खू के गैरेज से अपना वाहन लेने के लिए घर से यह वादा करके निकले थे कि वे जल्द ही लौट आएंगे। कहीं से एक गोली आयी और उनके सीना को चीरती हुई निकल गयी। सबिन के घर लौटने की बजाय उनकी पत्नी भाविशा ठाकुरी मल्लाह (महारजन) को त्रिभुवन विश्वविद्यालय शिक्षण अस्पताल से एक फोन आया कि उनके पति की गोली लगने से मौत हो गयी है। भाविशा सदमा में है। वे कहती हैं, “उसने कहा था कि वह जल्द ही वापस आ जाएगा। अब लोग यह कहते हुए आते हैं कि वे मदद करेंगे। क्या वे उसे वापस ला सकते हैं। मुझे यह भी नहीं पता कि विरोध प्रदर्शन किस बारे में था। यदि वह शांतिपूर्ण था तो ऐसा क्यों और किसने किया।”

ऐसे वातावरण में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) या फिर केवल न्यायिक आयोग ही विश्वसनीय रूप से तथ्य को कल्पना से अलग कर सकता है। ऐसे आयोग ही निष्पक्ष रूप से बुनियादी सवालों को ढूंढ सकते हैं कि हिंसा किस वजह से भड़की। क्या यह पूर्व नियोजित थी या स्वतःस्फूर्त। आंदोलनकारियों ने अराजकता भड़काई या फिर राज्य बलों ने अति प्रतिक्रिया कर आंदोलन को इस परिणाम तक बढ़ाया अथवा पहुंचाया। लेकिन, कानूनी विवादों के कारण एनएचआरसी ऐसी कोई जांच करने में असमर्थ दिखता है जबकि किसी न्यायिक आयोग के गठन की जरूरत को सरकार के गृह मंत्री रमेश लेखक ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह कोई राजनीतिक या वैचारिक विरोध नहीं था, बल्कि अराजकता फैलाने और संवैधानिक संकट को भड़काने का एक हिंसक प्रयास था। सरकार तथ्य आधारित निष्पक्ष जांच कर रही है। हमें ऐसी समितियां बनाने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए जो केवल वास्तविक न्याय से ध्यान भटकाती हैं।”

सबिन की मौत हो या पत्रकार सुरेश रजक की मौत या फिर घायलों की पीड़ा, ये सभी घटनाएं नेपाल के राजनीति में व्याप्त अस्थिरता को उजागर करती हैं। राजशाही की पुनर्वापसी के पक्ष में आवाजें चाहे कितनी भी बिखरी हुई क्यों न हों, ये हालात शासन, अर्थव्यवस्था, विकास और सरकारी संस्थानों से जनता के मोहभंग का मुखर प्रकटीकरण हैं। खंडित जनविश्वास के इस अतिसंवेदनशील वातावरण में किसी निष्पक्ष जांच आयोग का गठन नहीं करने की शासनिक जिद लोगों के मन में उत्पन्न संदेह को और विस्तार दे रही है।

सं. सूरज शिवा

वार्ता

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